द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ७
(५३)
सचमुच, मधुफल लिये मरण का
जीवन - लता फलेगी क्या?
आग करेगी दया? चिता में
काया नहीं जलेगी क्या?
कहती है कल्पना, मधुर
जीवन को क्यों कटु अन्त मिले?
पर, जैसे छलती वह सबको
वैसे मुझे छलेगी क्या?
(५४)
मधुबाले! तेरे अधरों से
मुझको रंच विराग नहीं,
यह न समझना देवि! कुटिल
तीरों के दिल पर दाग नहीं;
जी करता है हृदय लगाऊँ,
पल - पल चूमूँ, प्यार करूँ,
किन्तु, आह! यदि हमें जलाती
क्रूर चिता की आग नहीं।
(५५)
दो कोटर को छिपा रहीं
मदमाती आँखें लाल सखी!
अस्थि - तन्तु पर ही तो हैं
ये खिले कुसुम-से गाल सखी!
और कुचों के कमल? झरेंगे
ये तो जीवन से पहले,
कुछ थोड़ा-सा मांस प्राण का
छिपा रहा कंकाल सखी!
(५६)
बचे गहन से चाँद, छिपाऊँ
किधर? सोच चल होता हूँ,
मौत साँस गिनती तब भी जब
हृदय लगाकर सोता हूँ।
दया न होगी हाय, प्रलय को
इस सुन्दर मुखड़े पर भी,
जिसे चूम हँसती है दुनिया,
उसे देख मैं रोता हूँ।
(५७)
जाग, देख फिर आज बिहँसती
कल की वही उषा आई,
कलियाँ फिर खिल उठीं, सरित पर
परिचित वही विभा छाई;
रंजित मेघों से मेदुर नभ
उसी भाँति फिर आज हँसा,
भू पर, मानों, पड़ी आज तक
कभी न दुख की परछाईं।
(५८)
रँगने चलीं ओस-मुख किरणें
खोज क्षितिज का वातायन,
जानें, कहाँ चले उड़-उड़कर
फूलों की ले गन्ध पवन;
हँसने लगे फूल, किस्मत पर
रोने का अवकाश कहाँ?
बीते युग, पर, भूल न पाई
सरल प्रकृति अपना बचपन।
(५९)
मैं भी हँसूँ फूल-सा खिलकर?
शिशु अबोध हो लूँ कैसे?
पीकर इतनी व्यथा, कहो,
तुतली वाणी बोलूँ कैसे?
जी करता है, मत्त वायु बन
फिरूँ; कुंज में नृत्य करूँ,
पर, हूँ विवश हाय, पंकज का
हिमकण हूँ, डोलूँ कैसे?
(६०)
शान्त पाप! जग के जंगल में
रो मेरे कवि और नहीं,
सुधा-सिक्त पल ये, आँसू का
समय नहीं, यह ठौर नहीं;
अन्तर्जलन रहे अन्तर में,
आज वसन्त-उछाह यहाँ;
आँसू देख कहीं मुरझें
बौरे आमों के मौर नहीं।
(६१)
औ’ रोना भी व्यर्थ, मृदुल जब
हुआ व्यथा का भार नहीं,
आँसू पा बढ़ता जाता है,
घटता पारावार नहीं;
जो कुछ मिले भोग लेना है,
फूल हों कि हों शूल सखे!
पश्चाताप यही कि नियति पर
हमें स्वल्प अधिकार नहीं।