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द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ७
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15:17, 3 जनवरी 2010
:::(६१)
औ’ रोना भी व्यर्थ, मृदुल जब
::हुआ व्यथा का भार नहीं,
आँसू पा बढ़ता जाता है,
::घटता पारावार नहीं;
जो कुछ मिले भोग लेना है,
::फूल हों कि हों शूल सखे!
पश्चाताप यही कि नियति पर
::हमें स्वल्प अधिकार नहीं।
</poem>
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