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:::(६१)
औ’ रोना भी व्यर्थ, मृदुल जब::हुआ व्यथा का भार नहीं,आँसू पा बढ़ता जाता है,::घटता पारावार नहीं;जो कुछ मिले भोग लेना है,::फूल हों कि हों शूल सखे!पश्चाताप यही कि नियति पर::हमें स्वल्प अधिकार नहीं।
</poem>
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