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|रचनाकार=शीन काफ़ निज़ाम
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<poem>
सरनगूं है साअतों के सिलसिले सहमे हुए
दूरियाँ ही दूरियाँ हैं फ़ासले ही फ़ासले

दस्तकें देती फिरे हैं क्यूँ हवाएँ शाम से
झाँक कर कोई तो देखे कोई दरवाज़ा खुले

जागने की ज़िंदगी और इंतज़ारों के अलाव
सो गए कितने ही मौसिम रास्ता तकते हुए

मौसिमों का बोझ तन्हा सह सकेगा या नहीं
पेड़ पर जितने भी थे पत्ते पुराने झड़ गए

सूरतें ही सूरतें थीं सामने फैली हुईं
हम मगर मानी ही सूरत के गलत समझे रहे

एक फिरता आसमाँ आँखों में अलसाया हुआ
और इक तूफाँ को हैं पलकें अभी रोके हुए
</poem>
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