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15:31, 8 जनवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=शीन काफ़ निज़ाम
|संग्रह=सायों के साए में / शीन काफ़ निज़ाम
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
कई शक्लों में ख़ुद को सोचता है
समुन्दर पैकरों का सिलसिला है
बदलती रुत का नोहा सुन रहा है
नदी सोई है, जंगल जागता है
बिखरने वाला ख़ुद मंज़र-ब-मंज़र
मुझे क्यूँ ज़र्रा-ज़र्रा जोड़ता है
हवा का हाथ थामे उड़ रहा हूँ
हवा फ़ासिल, हवा ही फ़ासला है
हुदूदे-अर्ज़ में गम होने वाला
उफ़ुक़ को इम्काँ-इम्काँ जानता है
</poem>
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