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मौसम-ए-ग़म गुज़र न जाए कहीं / शीन काफ़ निज़ाम
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<poem>
मौसिमे ग़म गुज़र न जाए कहीं
शब् में सूरज निकल न आये कहीं
हर घड़ी दिल में है ये अंदेशा
कोई अनहोनी हो न जाए कहीं
फिर मनादी हुई है बस्ती में
कोई घर छोड़ कर न जाए कहीं
ये नया डर हुआ सफ़र में मुझे
रास्ता ख़तम हो न जाए कहीं
क्या बताऊँ वो क्यूँ परीशां है
मुझ को ढूँढ़े कहीं छिपाए कहीं
सपना-सपना है ख़वाब ख़ुशबू का
झोंका-झोंका बिखर न जाए कहीं
दूर ही रक्खो रोशनी से उसे
अपने साए से डर न जाए कहीं
बाद मुद्दत के तू मिला है निज़ाम
डर है फिर से बिछड़ न जाए कहीं
</poem>
Shrddha
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