भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मौसम-ए-ग़म गुज़र न जाए कहीं / शीन काफ़ निज़ाम
Kavita Kosh से
मौसिमे ग़म गुज़र न जाए कहीं
शब् में सूरज निकल न आये कहीं
हर घड़ी दिल में है ये अंदेशा
कोई अनहोनी हो न जाए कहीं
फिर मनादी हुई है बस्ती में
कोई घर छोड़ कर न जाए कहीं
ये नया डर हुआ सफ़र में मुझे
रास्ता ख़तम हो न जाए कहीं
क्या बताऊँ वो क्यूँ परीशां है
मुझ को ढूँढ़े कहीं छिपाए कहीं
सपना-सपना है ख़वाब ख़ुशबू का
झोंका-झोंका बिखर न जाए कहीं
दूर ही रक्खो रोशनी से उसे
अपने साए से डर न जाए कहीं
बाद मुद्दत के तू मिला है निज़ाम
डर है फिर से बिछड़ न जाए कहीं