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न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः॥१८- ४०॥
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सब ब्रह्म, शूद्र, वैष्णव, क्षत्रिय.
के होत विभाग स्वभावन सों.
बहु करम आधार परन्तप हैं,
गुण करम स्वभाव विभागन सों.
<span class="upnishad_mantra">ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥१८- ४१॥</span>
तप, ज्ञान, क्षमा, शम, दम, शुद्धि,
परब्रह्म कौ ज्ञान जो होत महे,
तन पावन, मन आस्तिक बुद्धि,
विप्रन के करम सुभाव अहे.
<span class="upnishad_mantra">शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥१८- ४२॥</span>
बल, शौर्य, चतुरता, धैर्य, धृति.
और ना ही पलायन युद्धन सों,
मन दास भाव और दान वृति,
अस होत हैं लक्षन क्षत्रिय सों.
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गौ पालन खेती क्रय-विक्रय
यहि वैश्य कौ करम भाव बन्यौ,
सब वर्णों की सेवा शूद्रन.
अस करम विभाग सुभाव रच्यौ.
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रत आपुनि-आपुनि करमन में,
नर ब्रह्म को पावत हैं ऐसे,
निज करम करत , मन ब्रह्म में रत,
नर होय सकै, यहि सुन कैसे?
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मन, करम, वचन, निज करमन रत,
और अंतर माहीं प्रभु सुमिरै.
पर सृष्टि रचयिता व्यापक कौ,
निज करम अनंतर ना बिसरै.
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गुण हीन धरम, तबहूँ आपुनि,
पर धर्म सों आपुनि धरम भल्यौ.
गुण करम सुभावन करम करै,
नाहीं पाप लगै यहि करम करयौ
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निज धरम माहीं कौन्तेय सुनौ,
कोऊ दोष हो तबहूँ नाहीं तजै,
जस धूम्र सों अगनि, करम सबहिं,
तस दोषन युक्त, रहैं सों रहैं.
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बिनु राग विराग जो होत जा,
लियौ जीत भी अंतर्मन अपना,
पद पाय परम संन्यास योग,
सों पावत सिद्धि, सिद्ध जना.
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जिन चित्तन शुद्धि, सिद्ध भये,
तिन सच्चिदानंद कौ पावै, तथा.
जिन ज्ञान तत्व की निष्ठा परा,
तस मोसों सुनौ कौन्तेय यथा.
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जिन बुद्धि विशुद्ध सों युक्त भये,
एकांत में जिनकौ लगै जिया.
मन वाणी तन सब जीत लियौ,
अति अल्प आहार ही लागै प्रिया.
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मन जाको विरक्त भयौ जग सों,
और चित्त भयौ दृढ़ वैरागी.
जिन ध्यान सतत मन साध लियौ,
तजै, रागन, विषयन बड़ भागी.
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बल, दर्प, अहम्, संग्रह, ममता,
सब कामहिं क्रोध कौ त्याग दियौ.
शुभ शांत हैं अंतर्मन जिनके,
तिन ब्रह्म के जोग, सुभाव लियौ.
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जिन ब्रह्म के भाव विलीन भये,
मन हर्ष न नैकु मलीन भये.
तिन दुखन चाह विहीन भये,
सम भव सों ब्रह्म में लीन भये.
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जेहि भक्त तत्व सों जानि लियौ,
तत्त्वज्ञ मोहे एक मानि लियौ.
भगवान् भक्त कौ भाव अनन्य सों,
आपुनि जस ही जानि लियौ.
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निष्काम करम , योगी कर्मठ,
करै करम तथापि नाहीं करै,
अथ मोरे परायण, मोरी कृपा,
सोई पावै परम पद और तरै.
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अब मोरे परायण अर्जुन ! हो,
सब करमन कौ अरपन करिकै,
निष्काम करम अबलम्ब हिया,
मोहे चित्त में सांचे मन धरिकै.
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मन चित्त सों तू मेरौ हुए जा,
तरि जइहौ कृपा सों कष्ट कटें.
यदि नाहीं अहम् कारन सुनिहौ,
यहि जन्म बृथा ही नष्ट, मिटे.
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अबलम्ब अहम् कौ मानत जो,
नाहीं जुद्ध करू, यदि ठानत है,
मिथ प्रण, पार्थ! सुभाव तेरौ,
तोहे जुद्ध क्षेत्र में लावत है.
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यदि करम मोह वश नाहीं करै,
तबहूँ तू पूर्व सुभावन सों.
हुए प्रेरित करिहौ करम यथा,
करि नाहीं सकै मन भावन सों.
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सब प्रानिन के हिय माहीं प्रभो,
आरूढ़ रहत अंतर्यामी.
अनुसार भ्रमित निज करमन के
माया सों जीव को अविरामी.
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एकमेव अनन्य शरण तोहे,
हे भारत तू शरणागत हो,
एकमेव कृपा सों धाम परम,
मिलै शांति सनातन, स्वागत हो.
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यहि गोप रहस्य रहस्यन कौ,
सत ज्ञान कह्यौ , अर्जुन तोसों,
चिंतन ज्ञान अखिल करिकै,
फिरि जस जी होय करौ तैसों.
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अति गोपन गोप रहस्य सुनयो,
पुनि-पुन में पार्थ ! कहहूँ तोसों.
मम श्रेय सखा! मन प्रेय सखा!
हितकारी वचन सुनहूँ , मोसों.
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निष्काम करम, अविराम मनन,
विह्वल मन मोहें नमन करिकै.
मम मित्र परम, प्रिय मैं तेरौ.
सौं लेत हूँ मोसों ही मिलिहै.
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तजि सारे धरम, बस एक मरम ,
श्री कृष्ण! मैं चित्त कौ लीन करै.
शरणागत भाव अनन्य हिया,
अघ मुक्ति, ना चित्त मलीन करै.
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तप भक्ति विहीन मेरौ निंदक,
जिन गीता मर्म की चाह नाहीं.
यहि मर्म कदापि ना तासों कह्यो ,
जेहि के हिया ब्भक्ति प्रवाह नाहीं.
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जिन मोसों प्रेम अनन्य करै,
गीता को सार कहौ तिनसों,
अथ गीता सार प्रसारक तौ,
बिनु संशय ही मिलिहै मोसों.
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अथ गीता सार प्रसारक सों,
प्रिय कोऊ नाहीं मनुष्यं में
धरनी मांहीं तासों बढ़कर,
प्रिय दूसर कोऊ अणु-कण में.
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जिन गीता कौ संवाद रूप,
और मर्म कौ अध्ययन नित्य करै,
करि ज्ञान यज्ञ , मोहे पूजै,
यहि मोरी मति, यहि कृत्य करै.
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जिन दोष दृष्टि तौ शेष भई,
गीता में भक्ति विशेष भई.
सुनि लेत ही गीता पाप कटें
शुभ लोकन माहीं प्रवेश भई.
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मन चित्त लगाय धनंजय हे!
क्या तत्व वचन तैनें श्रवण कियौ,
बिनु ज्ञान जनित सम्मोह पार्थ!
क्या नैकहूँ तैनें, क्षरण कियौ?
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अर्जुन उवाच
वासुदेव ! कृपा सों मेरौ तो,
अब जैसो, कहौ कृष्णा मैं करुँ,
बिनु संशय, मनः स्थिति आई.
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संजय उवाच
इति अर्जुन और श्री श्री कृष्णा,
यहि अद्भुत मर्म है गीता कौ,
जेहि संजय राजन सों कहयौ.
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श्री व्यास कृपा सों योग कौ गोप,
रहस्य सुनयौ, परमेश्वर सों
साकार स्वयं श्री कृष्ण कहैं.
मैं धन्य! सुनयौ परमेश्वर सों.
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बहु होत हर्ष अद्भुत राजन,
रोमांचित पुनि-पुनि होय घनयौ,
अच्युत - अर्जुन संवाद मरम,
मोहे पल-पल सुमिरन होय रह्यौ.
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हे राजन! पुनि-पुनि हरि श्री कौ,
वही अद्भुत रूप लुभाय रह्यौ .
अति अद्भुत दिव्य अलौकिक क्षण,
मम पुनरपि चित्त रिझाय रह्यौ.
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यत्र कृष्ण श्री योगेश्वर!
और पार्थ धनुर्धर रहैं जहाँ.