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अध्याय १८ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥१८- ४१॥

सब ब्रह्म, शूद्र, वैष्णव, क्षत्रिय.
के होत विभाग स्वभावन सों.
बहु करम आधार परन्तप हैं,
गुण करम स्वभाव विभागन सों.

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥१८- ४२॥

तप, ज्ञान, क्षमा, शम, दम, शुद्धि,
परब्रह्म कौ ज्ञान जो होत महे,
तन पावन, मन आस्तिक बुद्धि,
विप्रन के करम सुभाव अहे.

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥१८- ४३॥

बल, शौर्य, चतुरता, धैर्य, धृति.
और ना ही पलायन युद्धन सों,
मन दास भाव और दान वृति,
अस होत हैं लक्षन क्षत्रिय सों.

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥१८- ४४॥

गौ पालन खेती क्रय-विक्रय
यहि वैश्य कौ करम भाव बन्यौ,
सब वर्णों की सेवा शूद्रन.
अस करम विभाग सुभाव रच्यौ.

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥१८- ४५॥

रत आपुनि-आपुनि करमन में,
नर ब्रह्म को पावत हैं ऐसे,
निज करम करत , मन ब्रह्म में रत,
नर होय सकै, यहि सुन कैसे?

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥१८- ४६॥

मन, करम, वचन, निज करमन रत,
और अंतर माहीं प्रभु सुमिरै.
पर सृष्टि रचयिता व्यापक कौ,
निज करम अनंतर ना बिसरै.

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥१८- ४७॥

गुण हीन धरम, तबहूँ आपुनि,
पर धर्म सों आपुनि धरम भल्यौ.
गुण करम सुभावन करम करै,
नाहीं पाप लगै यहि करम करयौ

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥१८- ४८॥

निज धरम माहीं कौन्तेय सुनौ,
कोऊ दोष हो तबहूँ नाहीं तजै,
जस धूम्र सों अगनि, करम सबहिं,
तस दोषन युक्त, रहैं सों रहैं.

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति॥१८- ४९॥

बिनु राग विराग जो होत जा,
लियौ जीत भी अंतर्मन अपना,
पद पाय परम संन्यास योग,
सों पावत सिद्धि, सिद्ध जना.

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥१८- ५०॥

जिन चित्तन शुद्धि, सिद्ध भये,
तिन सच्चिदानंद कौ पावै, तथा.
जिन ज्ञान तत्व की निष्ठा परा,
तस मोसों सुनौ कौन्तेय यथा.

बुद्ध्या विशुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥१८- ५१॥

जिन बुद्धि विशुद्ध सों युक्त भये,
एकांत में जिनकौ लगै जिया.
मन वाणी तन सब जीत लियौ,
अति अल्प आहार ही लागै प्रिया.

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८- ५२॥

मन जाको विरक्त भयौ जग सों,
और चित्त भयौ दृढ़ वैरागी.
जिन ध्यान सतत मन साध लियौ,
तजै, रागन, विषयन बड़ भागी.

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८- ५३॥

बल, दर्प, अहम्, संग्रह, ममता,
सब कामहिं क्रोध कौ त्याग दियौ.
शुभ शांत हैं अंतर्मन जिनके,
तिन ब्रह्म के जोग, सुभाव लियौ.

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८- ५४॥

जिन ब्रह्म के भाव विलीन भये,
मन हर्ष न नैकु मलीन भये.
तिन दुखन चाह विहीन भये,
सम भव सों ब्रह्म में लीन भये.

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८- ५५॥

जेहि भक्त तत्व सों जानि लियौ,
तत्त्वज्ञ मोहे एक मानि लियौ.
भगवान् भक्त कौ भाव अनन्य सों,
आपुनि जस ही जानि लियौ.

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥१८- ५६॥

निष्काम करम , योगी कर्मठ,
करै करम तथापि नाहीं करै,
अथ मोरे परायण, मोरी कृपा,
सोई पावै परम पद और तरै.

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥१८- ५७॥

अब मोरे परायण अर्जुन ! हो,
सब करमन कौ अरपन करिकै,
निष्काम करम अबलम्ब हिया,
मोहे चित्त में सांचे मन धरिकै.

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८- ५८॥

मन चित्त सों तू मेरौ हुए जा,
तरि जइहौ कृपा सों कष्ट कटें.
यदि नाहीं अहम् कारन सुनिहौ,
यहि जन्म बृथा ही नष्ट, मिटे.

यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥१८- ५९॥

अबलम्ब अहम् कौ मानत जो,
नाहीं जुद्ध करू, यदि ठानत है,
मिथ प्रण, पार्थ! सुभाव तेरौ,
तोहे जुद्ध क्षेत्र में लावत है.

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥१८- ६०॥

यदि करम मोह वश नाहीं करै,
तबहूँ तू पूर्व सुभावन सों.
हुए प्रेरित करिहौ करम यथा,
करि नाहीं सकै मन भावन सों.

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥१८- ६१॥

सब प्रानिन के हिय माहीं प्रभो,
आरूढ़ रहत अंतर्यामी.
अनुसार भ्रमित निज करमन के
माया सों जीव को अविरामी.

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥१८- ६२॥

एकमेव अनन्य शरण तोहे,
हे भारत तू शरणागत हो,
एकमेव कृपा सों धाम परम,
मिलै शांति सनातन, स्वागत हो.

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‌गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥१८- ६३॥

यहि गोप रहस्य रहस्यन कौ,
सत ज्ञान कह्यौ , अर्जुन तोसों,
चिंतन ज्ञान अखिल करिकै,
फिरि जस जी होय करौ तैसों.

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥१८- ६४॥

अति गोपन गोप रहस्य सुनयो,
पुनि-पुन में पार्थ ! कहहूँ तोसों.
मम श्रेय सखा! मन प्रेय सखा!
हितकारी वचन सुनहूँ , मोसों.

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८- ६५॥

निष्काम करम, अविराम मनन,
विह्वल मन मोहें नमन करिकै.
मम मित्र परम, प्रिय मैं तेरौ.
सौं लेत हूँ मोसों ही मिलिहै.

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८- ६६॥

तजि सारे धरम, बस एक मरम ,
श्री कृष्ण! मैं चित्त कौ लीन करै.
शरणागत भाव अनन्य हिया,
अघ मुक्ति, ना चित्त मलीन करै.

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥१८- ६७॥

तप भक्ति विहीन मेरौ निंदक,
जिन गीता मर्म की चाह नाहीं.
यहि मर्म कदापि ना तासों कह्यो ,
जेहि के हिया ब्भक्ति प्रवाह नाहीं.

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥१८- ६८॥

जिन मोसों प्रेम अनन्य करै,
गीता को सार कहौ तिनसों,
अथ गीता सार प्रसारक तौ,
बिनु संशय ही मिलिहै मोसों.

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥१८- ६९॥

अथ गीता सार प्रसारक सों,
प्रिय कोऊ नाहीं मनुष्यं में
धरनी मांहीं तासों बढ़कर,
प्रिय दूसर कोऊ अणु-कण में.

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥१८- ७०॥

जिन गीता कौ संवाद रूप,
और मर्म कौ अध्ययन नित्य करै,
करि ज्ञान यज्ञ , मोहे पूजै,
यहि मोरी मति, यहि कृत्य करै.

श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥१८- ७१॥

जिन दोष दृष्टि तौ शेष भई,
गीता में भक्ति विशेष भई.
सुनि लेत ही गीता पाप कटें
शुभ लोकन माहीं प्रवेश भई.

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय॥१८- ७२॥

मन चित्त लगाय धनंजय हे!
क्या तत्व वचन तैनें श्रवण कियौ,
बिनु ज्ञान जनित सम्मोह पार्थ!
क्या नैकहूँ तैनें, क्षरण कियौ?

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥१८- ७३॥

अर्जुन उवाच
वासुदेव ! कृपा सों मेरौ तो,
भयौ मोह नाश , सुमति पाई,
अब जैसो, कहौ कृष्णा मैं करुँ,
बिनु संशय, मनः स्थिति आई.

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्॥१८- ७४॥

संजय उवाच
इति अर्जुन और श्री श्री कृष्णा,
संवाद, रोमांचित चित्त सुनयौ,
यहि अद्भुत मर्म है गीता कौ,
जेहि संजय राजन सों कहयौ.

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्॥१८- ७५॥

श्री व्यास कृपा सों योग कौ गोप,
रहस्य सुनयौ, परमेश्वर सों
साकार स्वयं श्री कृष्ण कहैं.
मैं धन्य! सुनयौ परमेश्वर सों.

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः॥१८- ७६॥

बहु होत हर्ष अद्भुत राजन,
रोमांचित पुनि-पुनि होय घनयौ,
अच्युत - अर्जुन संवाद मरम,
मोहे पल-पल सुमिरन होय रह्यौ.

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः॥१८- ७७॥

हे राजन! पुनि-पुनि हरि श्री कौ,
वही अद्भुत रूप लुभाय रह्यौ .
अति अद्भुत दिव्य अलौकिक क्षण,
मम पुनरपि चित्त रिझाय रह्यौ.

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८- ७८॥

यत्र कृष्ण श्री योगेश्वर!
और पार्थ धनुर्धर रहैं जहाँ.
बहु नीति, विभूति श्री ध्रुव जय ,
मोरे मत श्री सुख बसै वहॉं.

ॐ तत् सत