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जब आदमी / मुकेश जैन

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नया पृष्ठ: '''जब आदमी ''' जब आदमी<br /> अपनी आदिमता में जीते होते हैं<br /> वह चींखता है…
'''जब आदमी '''

जब आदमी<br />
अपनी आदिमता में जीते होते हैं<br />
वह चींखता है<br />
भयानक<br />
(तो)<br />
रात और स्याह हो जाती है,<br /><br />

अपने बंद कमरे में<br />
चादर को अपने चारों ओर<br />
और कसकर लपेट लेता हूं<br />
और स्वस्थ सांस लेने को<br />
मुँह चादर से बाहर निकालने का<br />
साहस नहीं होता,<br /><br />

वह क्यों चींखता है<br />
यह सवाल<br />
बहरहाल<br />
मैं<br />
रात के अंधेरे में नहीं पूछता<br />
दिन के उजाले में सोचता हूं.<br /><br />

फ़िलहाल<br />
मेरे पास<br /><br />

इस सवाल का कोई ज़वाब नहीं<br />
वह किसके विरुद्ध चींखता है


'''रचनाकाल:''' ०२/दिसम्बर/१९८८
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