[[Category:ग़ज़ल]]
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मंज़ूर थी यह शक्ल शक़्ल तजल्ली<ref>दिव्य प्रकाश</ref> को नूर की
क़िस्मत खुली तेरे क़द-ओ-रुख़ से ज़हूर<ref>सच्चाई</ref> की
काबे से उन बुतों को भी निस्बत<ref>रिश्ता</ref> है दूर की
क्या फ़र्ज़<ref>जरूरीज़रूरी</ref> है कि सब को मिले एक-सा जवाब
आओ न, हम भी सैर करें कोह-ए-तूर<ref>तूर नामी पहाड़</ref> की
'ग़ालिब' गर उस सफ़र में मुझे साथ ले चलें
हज का सवाब नज़र नज़्र<ref>भेंट</ref> करूंगा हुज़ूर की
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