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मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की / ग़ालिब

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मंज़ूर थी यह शक़्ल तजल्ली<ref>दिव्य प्रकाश</ref> को नूर की
क़िस्मत खुली तेरे क़द-ओ-रुख़ से ज़हूर<ref>सच्चाई</ref> की

इक ख़ूं-चकां कफ़न में करोड़ों बनाव हैं
पड़ती है आँख तेरे शहीदों पे हूर की

वा`इज़<ref>उपदेशक</ref> न तुम पियो न किसी को पिला सको
क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तहूर<ref>स्वर्ग की शराब</ref> की

लड़ता है मुझ से हश्र में क़ातिल कि क्यूं उठा
गोया अभी सुनी नहीं आवाज़ सूर<ref>वो साज़ जो कयामत के दिन बजेगा जिसे सुनकर मुर्दे कब्रों में से उठ खड़े होंगे</ref> की

आमद बहार की है जो बुलबुल है नग़मा-संज<ref>मधुर गाना गाने वाली</ref>
उड़ती-सी इक ख़बर है, ज़बानी तयूर<ref>पक्षी</ref> की

गो वां नहीं पे<ref>पर</ref> वां के निकाले हुए तो हैं
काबे से उन बुतों को भी निस्बत<ref>रिश्ता</ref> है दूर की

क्या फ़र्ज़<ref>ज़रूरी</ref> है कि सब को मिले एक-सा जवाब
आओ न, हम भी सैर करें कोह-ए-तूर<ref>तूर नामी पहाड़</ref> की

गरमी सही कलाम में, लेकिन न इस क़दर
की जिस से बात उसने शिकायत ज़रूर की

'ग़ालिब' गर उस सफ़र में मुझे साथ ले चलें
हज का सवाब<ref>पुण्य</ref> नज़्र<ref>भेंट</ref> करूंगा हुज़ूर की

शब्दार्थ
<references/>