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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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<poem>
जोगिनि की भोगिनि की बिकल बियोगिनि की
::जग मैं न जागती जमातैं रहि जाइँगी ।
कहैं रतनाकर न सुख के रहे जो दिन
::तौ ये दुख-द्वंद्व की न रातैं रहि जाइँगी ॥
प्रेम-नेम छाँड़ि ज्ञान-छेम जो बतावत सो
::भीति ही नहीं तो कहा छातैं रहि जाइँगी ।
घातैं रहि जाइँगी न कान्ह की कृपा तें इती
::ऊधौ कहिबै कौं बस बातैं रहि जाइँगी ॥54॥
</poem>
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