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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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<poem>
जात घनश्याम के ललात दृग कंज-पाँति
::घेरि दिख-साध-भौंर भीरि की अनी रहै ।
कहै रतनाकर बिरह बिधु बाम भयौ
::चन्द्रहास ताने घात घायल घनी रहै ॥
सीत-घाम बरषा-बिचार बिनु आने ब्रज
::पंचवान-बानि की उमड़ ठनी रहै ।
काम बिधना सौं लहि फरद दवामी सदा
::दरद दिवैया ऋतु सरद बनी रहै ॥90॥
</poem>
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