भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जात घनश्याम के ललात दृग कंज-पाँति / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
Kavita Kosh से
जात घनश्याम के ललात दृग कंज-पाँति
घेरि दिख-साध-भौंर भीरि की अनी रहै ।
कहै रतनाकर बिरह बिधु बाम भयौ
चन्द्रहास ताने घात घायल घनी रहै ॥
सीत-घाम बरषा-बिचार बिनु आने ब्रज
पंचवान-बानि की उमड़ ठनी रहै ।
काम बिधना सौं लहि फरद दवामी सदा
दरद दिवैया ऋतु सरद बनी रहै ॥90॥