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{{KKRachna
|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
|संग्रह=उद्धव-शतक / जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
}}
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<poem>
माने जब नैकु ना मनाएं मन-मोहन के
::तोपै मन-मोहिनि मनाए कहा मानौ तुम ।
कहै रतनाकर मलीन मकरी लौं नित
::आपुनौंहीं जाल अपने हीं पर तानौ तुम ॥
कबहुँ परे न नैन-नीर हूँ के फेर माहिं
::पैरिबौ सनेह-सिंधु माहिं कहा ठानौ तुम ।
जानत न ब्रह्म हूँ प्रामानत अलच्छ ताहि
::तोपै भला प्रेम कौं प्रतच्छ कहा जानौ तुम ॥93॥
</poem>
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<poem>
माने जब नैकु ना मनाएं मन-मोहन के
::तोपै मन-मोहिनि मनाए कहा मानौ तुम ।
कहै रतनाकर मलीन मकरी लौं नित
::आपुनौंहीं जाल अपने हीं पर तानौ तुम ॥
कबहुँ परे न नैन-नीर हूँ के फेर माहिं
::पैरिबौ सनेह-सिंधु माहिं कहा ठानौ तुम ।
जानत न ब्रह्म हूँ प्रामानत अलच्छ ताहि
::तोपै भला प्रेम कौं प्रतच्छ कहा जानौ तुम ॥93॥
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