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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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<poem>
गोपी, ग्वाल, नंद, जसुदा सौं तौं विदा ह्वै उठे
::उठत न पाँय पै उठावत डगत हैं ।
कहै रतनाकर संभारि सारथी पै नीठि
::दीठिन बचाइ चल्यौ चोर ज्यौं भगत हैं ॥
कुंजनि की कूल की कलिंदी की रूएँदी दसा
::देखि-देखि आँस औ उसाँस उमगत हैं ।
रथ तैं उतरि पथ पावत जहाँ ही तहाँ
::बिकल बिसूरि धूरि लोटन लगत हैं ॥102॥
</poem>
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