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Kavita Kosh से
अब यहाँ बुज़दिलों के डेरे हैं
अब वो सरदारियाँ नहीं होती
पहले होती थीं कुर्बतें दिल में
अब रवादारियाँ नहीं होती
जिन रुख़ों पर सजी हो शर्म-ओ-हया