भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नाज़बरदारियाँ नहीं होतीं / चाँद हादियाबादी
Kavita Kosh से
नाज़बरदारियाँ नहीं होतीं
हमसे मक़्क़ारियाँ नहीं होतीं
दिल में जो है वही ज़बान पे है
हमसे अय्यारियाँ नहीं होतीं
कम न होती ज़मीं ये जन्नत से
गर ये बदकारियाँ नहीं होतीं
इतनी पी है कि होश हैं गुम-सुम
अब ये मय-ख़्वारियाँ नहीं होतीं
अब यहाँ बुज़दिलों के डेरे हैं
अब वो सरदारियाँ नहीं होती
पहले होती थीं कुर्बतें दिल में
अब रवादारियाँ नहीं होती
जिन रुख़ों पर सजी हो शर्म-ओ-हया
उनपे फुलकारियाँ नहीं होती
'चाँद'! जलते चिनार देखे हैं
मुझसे गुलकारियाँ नहीं होती।