{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=विनोद कुमार शुक्ल |संग्रह=सब कुछ होना बचा रहेगा / विनोद कुमार शुक्ल}}{{KKCatKavita}}<Poem>घर संसार में घुसते ही<br />पहिचान बतानी होती है<br />उसकी आहट सुन<br />पत्नी बच्चे पूछेंगे 'कौन?'<br />'मैं हूंहूँ' वह कहता है<br />तब दरवाजा खुलता है.<br />है।<br />घर उसका शिविर<br />जहॉं जहाँ घायल होकर वह लौटता है.<br />है।<br />रबर की चप्पल को<br />छेद कर कोई जूते का खीला उसका तलुआ छेद गया है.<br />है।पैर से पट्टी बॉंध सुस्ता कर कुछ खाकर<br />दूसरे दिन अपने घर का पूरा दरवाजा खोलकर<br />वह बाहर निकला<br /><br />अखिल संसार में उसकी आहट हुई<br />दबे पॉंव पाँव नहीं<br />खॉंसा खाँसा और कराहा<br />'कौन?' यह किसी ने नहीं पूछा<br />सड़क के कुत्ते ने पहिचानकर पूंछ हिलाई<br />किराने वाला उसे देखकर मुस्कुराया<br />मुस्कुराया तो वह भी.<br />भी।<br />एक पान ठेले के सामने<br />कुछ ज्यादा देर खड़े होकर<br />उधार पान मॉंगा<br />माँगाऔर पान खाते हुए<br />कुछ देर खड़े होकर<br />फिर कुछ ज्यादा देर खड़े होकर<br />परास्त हो गया.<br />गया।<br /poem>