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{{KKRachna
|रचनाकार=रामदरश मिश्र
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यह भी दिन बीत गया।
पता नहीं जीवन का यह घडाघड़ाएक बूंद बूँद भरा या कि एक बूंद बूँद रीत गया।
उठा कहीं, गिरा कहीं, पाया कुछ खो दिया
बंधा बँधा कहीं, खुला कहीं, हंसा हँसा कहीं, रो दिया।पता नहीं इन घडियों घड़ियों का हियाआंसू आँसू बन ढलकाया कुल का बन गीत गया।
इस तट लगने वाले और कहीं जा लगे
किसके ये टूटे जलयान यहां यहाँ आ लगे
पता नहीं बहता तट आज का
तोड गया प्रीति या कि जोड नए मीत गया।
एक आस यों ही बंशी डाले रह गई
पता नहीं दोनों के मौन में
कौन कहां कहाँ हार गया, कौन कहां कहाँ जीत गया। 
</poem>
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