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यह भी दिन बीत गया / रामदरश मिश्र
Kavita Kosh से
यह भी दिन बीत गया
पता नहीं जीवन का यह घड़ा
एक बूँद भरा या कि एक बूँद रीत गया।
उठा कहीं, गिरा कहीं, पाया कुछ खो दिया
बँधा कहीं, खुला कहीं, हँसा कहीं, रो दिया।
पता नहीं इन घड़ियों का हिया
आँसू बन ढलकाया कुल का बन गीत गया।
इस तट लगने वाले और कहीं जा लगे
किसके ये टूटे जलयान यहाँ आ लगे
पता नहीं बहता तट आज का
तोड़ गया प्रीति या कि जोड़ नए मीत गया।
एक लहर और इसी धारा में बह गई
एक आस यों ही बंशी डाले रह गई
पता नहीं दोनों के मौन में
कौन कहाँ हार गया, कौन कहाँ जीत गया।
यह भी दिन बीत गया
पता नहीं जीवन का यह घड़ा
एक बूँद भरा या कि एक बूँद रीत गया।