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{{KKRachna
|रचनाकार=चंद्रभानु भारद्वाज
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बुझे दियों में भी इक बार रोशनी होती
किसी के नाम से यदि ज़िन्दगी जुड़ी होती

जहाँ पे धूप ही हरदम तपी रही सर पर
वहाँ भी पाँव के नीचे तो चाँदनी होती

भले बहार का मौसम कभी नहीं आता
किसी की चाह की बगिया मगर हरी होती

नज़र में दूर तक फैला भले अँधेरा हो
मगर विश्वास की कोई किरण दिखी होती

डगर में पाँव के छाले कहीं पे सहलाने
किसी भी पेड़ की कुछ छाँह तो मिली होती

कभी ये ज़िन्दगी ऐसे न धुन्धुवाती रहती
सुलगने के लिए थोड़ी हवा रही होती

जगह देती न 'भारद्वाज' को अगर दुनिया
अपनी दुनिया किसी दिल में अलग बसी होती
</poem>
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