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|रचनाकार=विजय कुमार पंत
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केशो का आच्छादित ये आकाश देखकर
हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर
दमक रही दामिनी का दिव्य प्रवास देखकर
हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

भ्रकुटी के अवरोध अनगिनत
पलकों के अनुरोध अनगिनत
चंचल नैनों से झरते संवाद देखकर
हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

शब्दों के संधान सुनहरे
मन पर चलते बाण सुनहरे
अधरों पर फैला अद्भुत उन्माद देखकर
हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

श्रृंगारित यौवन वसुधा है
मुखरित कितनी प्रेम क्षुधा है
गालों पर बिखरा जीवन मधुमास देखकर
हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

आह्लादित है अंतर सारा
अप्रतिम कितना रूप तुम्हारा
रोम रोम पुलकित उर का उल्लास देखकर
हतप्रभ हूँ मैं तुम सा सुंदर चाँद देखकर
</poem>
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