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|रचनाकार=राजेन्द्र स्वर्णकार
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दरिया से न समंदर छीन
मुझसे मत मेरा घर छीन

क्यों उड़ने की दावत दी
ले तो लिये पहले पर छीन

मंज़िल मैं ख़ुद पा लूंगा
राह न मेरी रहबर छीन

मिल लूंगा उससे , लेकिन
पहले उससे पत्त्थर छीन

देख ! हक़ीक़त बोलेगी
हाथों से मत संगजर छीन

लूट मुझे ; मुझसे मेरा
जैसा है न सुख़नवर छीन

बोल लुटेरे ! ताक़त है ?
मुझसे मेरा मुक़द्दर छीन

मालिक ! नज़र नज़र से अब
ख़ौफ़ भरे सब मंज़र छीन

राजेन्द्र हौवा तो नहीं
लोगों के मन से डर छीन
</poem>
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