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यूँ निकला सूरज / अशोक लव

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रात की काली चादर उतारकर
भागती भोर
सूरज से जा टकराई
बिखर गए सूरज के हाथों के रंग

छितरा गए आकाश पर
पर्वतों पर, झरनों पर नदी पर
नदी की लहेरों पर
धरती के वस्त्र पर, रंग

छू न सका सूरज भोर को
डांट न सका सूरज भोर को
और
आकाश पर निकल आया
</poem>
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