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तेरे हाथों से छूटी जो, मैं मिट्टी से हम वार हुई हंसती-खिलती सी गुड़िया थी, इक धक्के से बेकार हुई
ज़ख्मों पर मरहम देने को, उसने तो हाथ बढाया था मेरे जीवन की पीड़ा ही, इक दोधारी तलवार हुई
ये गर्म फ़ज़ा झुलसाएगी, पैरों में भी छाले लाएगीदेती थी जो साया मुझको, अब दूर वही दीवार हुई
दिन-रात दुआओं में मुझको, माँगा था खुदा से जिसने कभी
ये वो कुर्बत फिर भी मालूम नहीं, क्यूँ उसके दिल का भार हुई
जाने कब से खामोश थे लब, और सन्नाटा था जेहन ज़हनों में
इन दोनों की तन्हाई भी, महसूस मुझे इस बार हुई
जिसके कारण महका-महका मेरे जीवन का हर लम्हा
करती शुकराना हूँ है उसका जिससे " श्रद्धा " इक प्यार महकी गुलज़ार हुई </poem>
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