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नित्य - नूतन, प्राण, अपने
बाँधती जातीं मुझे कर कर
व्यथा से दीन !
कह रही हो--"दुःख की विधि--
यह तुम्हें ला दी नई निधि,
विहग के वे पंख बदले,--
मुक्त अम्बर गया, अब हो
समझ पाया था नहीं मैं,
दिये थे जो स्नेह-चुम्बन,
आज प्याले गरल के घन;
कह रही हो हँस--"पियो, प्रिय,
मुक्ति हूँ मैं, मृत्यु में
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