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मरण-दृश्य / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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कहा जो न, कहो !
नित्य - नूतन, प्राण, अपने
         गान रच-रच दो !

विश्व सीमाहीन;
बाँधती जातीं मुझे कर कर
         व्यथा से दीन !
कह रही हो--"दुःख की विधि--
यह तुम्हें ला दी नई निधि,
विहग के वे पंख बदले,--
         किया जल का मीन;
मुक्त अम्बर गया, अब हो
          जलधि-जीवन को !"

सकल साभिप्राय;
समझ पाया था नहीं मैं,
          थी तभी यह हाय !
दिये थे जो स्नेह-चुम्बन,
आज प्याले गरल के घन;
कह रही हो हँस--"पियो, प्रिय,
          पियो, प्रिय, निरुपाय !
मुक्ति हूँ मैं, मृत्यु में
          आई हुई, न डरो !"