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कभी कभी / रमानाथ अवस्थी

24 bytes added, 15:31, 21 नवम्बर 2010
|रचनाकार=रमानाथ अवस्थी
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कभी कभी जब मेरी तबियत
यों ही घबराने लगती है
दिन भी मिलता दिन भर को
कोई पूरी तरह न मिलता
रामनाथ रमानाथ लौटो घर को
घर भी बिन दीवारों वाला
जब दुविधा छाने लगती है
तभी ज़िन्दगी मुझे न जाने
क्या -क्या समझाने लगती है
पूरी होने की उम्मीद में
रही सदा हर नींद अधूरी
तन चाहे जितना सुंदर हो
मरना तो उसकी मजबूरीमज़बूरी
मजबूरी मज़बूरी की मार सभी कोमजबूरन मज़बूरन सहनी पड़ती है
</poem>
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