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|संग्रह=भटका मेघ / श्रीकांत वर्मा
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मेरे चूल्हे में जो राख का बवंडर है <br>उसके आकार में <br>तुम्हारा ही मुखड़ा है। <br>है । मेरे मन में जो कौंधा है, जो बिजली है, <br>उसको तुमने अपने <br>तरकश में जकड़ा है। <br>है । सहज कल्पनाएँ <br>मीनारों सी टूट गईं, <br>इधर उधर फिरती <br>आकांक्षा की कूबड़ है। <br>है । असफलता का थप्पड़ है, <br>अपनी ही प्रतिध्वनि <br>अपने मन को कंकड़ है। <br>है । तुम मेरे आसपास सभी जगह ज़िंदा हो। <br> <br>हो ।
शत्रु तुम परिस्थिति हो। <br>हो । अक्स तुम्हारा मेरे जीवन पर पड़ता है। <br>है । मुझे ग्रहण लगता है <br>सुबह ग्रहण है, शाम ग्रहण लगता है। <br>है । मेरे भूगोल की परिधि में तुम ज़िंदा हो। <br>हो । किंतु तुम परिस्थिति हो। <br>हो । और परिस्थिति के गमले को फोड़ रहा <br>अंकुर हूँ, पौधा हूँ। <br>हूँ । पौधा हूँ एक, मगर <br>जड़ असंख्य, अगणित हैं। <br>हैं । हर जड़ में मैं हूँ— <br>मैं भी अपने संगठनों में प्रतिपल ज़िंदा हूँ। <br>हूँ । अंकुर हूँ <br>हवा में, गगन में <br>बाहर भीतर ज़िंदा हूँ। हूँ । <br/poem>