संगठन का अंकुर / श्रीकांत वर्मा
  
तुम मेरे शत्रु हो 
मेरी हर अड़चन की जड़ में तुम ज़िंदा हो ।
तुम मेरे शत्रु हो 
मेरे सपनों की राखड़ में तुम ज़िंदा हो । 
मेरे चूल्हे में जो राख का बवंडर है 
उसके आकार में 
तुम्हारा ही मुखड़ा है । 
मेरे मन में जो कौंधा है, जो बिजली है, 
उसको तुमने अपने 
तरकश में जकड़ा है । 
सहज कल्पनाएँ 
मीनारों सी टूट गईं, 
इधर उधर फिरती 
आकांक्षा की कूबड़ है । 
असफलता का थप्पड़ है, 
अपनी ही प्रतिध्वनि  
अपने मन को कंकड़ है । 
तुम मेरे आसपास सभी जगह ज़िंदा हो । 
शत्रु तुम परिस्थिति हो । 
अक्स तुम्हारा मेरे जीवन पर पड़ता है । 
मुझे ग्रहण लगता है 
सुबह ग्रहण है, शाम ग्रहण लगता है । 
मेरे भूगोल की परिधि में तुम ज़िंदा हो । 
किंतु तुम परिस्थिति हो । 
और परिस्थिति के गमले को फोड़ रहा 
अंकुर हूँ, पौधा हूँ । 
पौधा हूँ एक, मगर 
जड़ असंख्य, अगणित हैं । 
हर जड़ में मैं हूँ— 
मैं भी अपने संगठनों में प्रतिपल ज़िंदा हूँ । 
अंकुर हूँ 
हवा में, गगन में 
बाहर भीतर ज़िंदा हूँ ।
	
	