विश्वकर्मा / शरद कोकास
सोने का बंगला चंदन का जंगला
विश्वकर्मा ने बनाया था
कुछ बरस पहले आरजू साहब का यह गीत
फिल्म प्रेसिडेंट में सहगल साहब ने गाया था
प्रजापति के मिथक में विश्व निर्माता था विश्वकर्मा
उसकी पीठ पर बहते पसीने में बहती थी नदियाँ
पहाड़ उसके माथे पर पड़े हुए बल थे
हवाओं में पेड़ यूँ झूमते मानो उसके रोम लहराते हों
उसकी फटी बिवाइयों में कराहते मनुष्य के दुख
उसके सृजन के सुख में गूँजती संतोष की हँसी
स्वर्ग की कल्पना से पहले महज मिट्टी थी यह धरती
खौलते समुद्रों से उठकर आती थीं ज़हरीली हवाएँ
लावा उगलते थे धरती की छाती पर खड़े पर्वत
आग बरसती थी अबूझ आसमान से
जीवन के इस वैपरीत्य में भी उसने
जीने के लिए रास्ते बनाए
पहला श्रमजीवी था वह धरती का पहला मज़दूर
गढ़े अपने औज़ारों से जिसने स्वप्नों के शिल्प
नवजात पृथ्वी की नग्न देह ढाँकने के लिए
सभ्यता की शक्ल में निर्मित किए वस्त्राभूषण
जन्मना नहीं था वह अपनी देह में
न ही देह से बाहर कहीं था उसका अस्तित्व
भविष्य का मनुष्य ढूँढ़ रहा था उसे पुराण कथाओं में
महल से झोपड़ी तक चप्पे-चप्पे में मौजूद था उसका श्रम
जिसकी महत्ता स्थापित करने के लिए वह
मनुष्य के मन में आकार ले रहा था
अद्भुत पर आस्था के उस अंधेरे समय में
जहाँ मनुष्यों के बीच देवता बनने की जंग जारी थी
वर्ण की चौखट में बंद कर दिया उसे मनुष्यों ने
छीन लिए उसके औज़ार बाँट लिये आपस में
सम्मान किया उसके सृजन का
और चुरा ली उससे रचने की ताकत
मंदिरों में स्थापित कर दिया उसे
और रोली चंदन फूलों के ढेर में छुपा दिए
उसके मेहनती हाथ
एक श्रमिक को ईश्वर बनाने का यह ऐसा षड्यंत्र था
जिसकी आड़ में अकर्मण्यता का अनिर्वचनीय सुख था
अंततः चालाक मनुष्यों ने अपना ली उसकी कला
और उसके आविष्कारों को खु़द का बताकर
अपने नाम से पेटेंट कर दिया
शिल्प के सर्वाधिकार प्राप्त किए
तय किया श्रम का बाज़ार भाव अपने अनुसार
उसके नाम पर स्थापित किये समाज और संगठन
और स्वयंभू हो गए
घंटी आरती और भजन के शोर में चुपचाप
जाने कब निकला वह मनुष्य की नज़रें बचाकर
समा गया कुदाल-फावड़ों, आरी-बसूलों और छेनी-हथौड़ों में।
-2009