भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वे उनसोँ रति को उमहैँ वे उनसोँ विपरीत को रागैँ / अज्ञात कवि (रीतिकाल)
Kavita Kosh से
वे उनसोँ रति को उमहैँ वे उनसोँ विपरीत को रागैँ ।
वे उनको पटपीत धरैँ अरु वे उनही सों निलँबर माँगैँ ।
गोकुल दोऊ भरे रसरँग निसा भरि योँ हिय आनँद पागैँ ।
वे उनको मुख चूमि रहैँ वे उनको मुखि चूमनि लागैँ ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।