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वे क्षण / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

वे क्षण भूल नहीं पाता हूँ!

दर्पण-से निर्मल सरवर में
नील कमल-सी तू तिरती थी,
लहर उठाते इस करतल को
चूम-चूम लोचन भरती थी,
नीर बिचुम्बित उन अधरों का
कम्पन भूल नहीं पाता हूँ!

कंगन दिया था जल में
डुबकी मार उठा लाने को,
समय पड़े तो तू प्रस्तुत थी
सागर के तल तक जाने को,
वे मृदु वचन और वह तेरा
कंगन भूल नहीं पाता हूँ!

तूने इन भीगे चरणों को
उच्छवासों में बांध लिया था,
कोई करुण गीत गाने को
अपने कवि को विवश किया था,
तेरी जल-पूरित अंजलि का
अर्चन भूल नहीं पाता हूँ!