शकुन्तला / अध्याय 7 / भाग 1 / दामोदर लालदास
दुहुक बिनु दुहु विकल प्रतिपल मदन तानल तीर।
कण्वकन्या एतय, भूपति ओतय विकल अधीर।।
निशि-दिवा बिति रहल युगलक करति रूपक ध्यान।
दुहुक सुधि-बुधि हा! हेरायल, नशल सँयम, ज्ञान।।
गेल सभ सँकोच बाढ़ल, शोच उर प्रतियाम।
कखन प्रिय, प्रेयसिक देखब चन्द्र-मुख-अभिराम?
कतय जाउ? पाठउ ककरा? के मिलाओत आनि?
अस्तु विरहें युगल त्यागल शयन-भोजन-पानि।।
दिशि लगैछ अन्हार, अल्पहुँ भेल भूषण भार।
अहह! दुहु छथि डुबल विरहक अगम पारावार।।
मणि विहीन भुजंग वा जल बिनु यथा रह मीन।
युगल तहिना छटपटाइत रहथि! अतिशय दीन।।
नहि सुझै अछि अन्य कोनहुँ अहह! सुखमय युक्ति।
जाहिसँ ई युगल पाबथि विरहसँ झट मुक्ति।।
खगक चहकब, पिकक कुहुकब करय और अधीर।
करय तन प्रज्वलित शीतल-सुखद-मन्द-समीर।।
फुल दै अछि शूल दुहु उर दुखद अति विस्तार।
चन्द्र शीतल, वृष्टि हीतलपर करय अंगार।।
सत्य कविगण कहल-दुस्सह होय विरहक काल।
अमृतो विषतुल्य दुखप्रद तखन होइछ विशाल।।
अस्तु, बिरहें भय विकल दुष्यन्त मदनाधीर।
एक दिन विचरैत अयला मंजु-मालिनि-तीर।।
प्रेयसी-मिलनार्थ मनमें राखि दृढ़ अभिलाष।
करथि तर्क-वितर्क अनुखन व्यथित भेल उदासँ
शशिमुखी मनहारिणी मृगलोचनी से बाल।
कतय होइति प्रियतमा मम हा विधे! एहि काल?
हमर मन यद्यपि सुमुखिहिंक ध्यानमे अछि लीन।
ज्ञात नहि तनिकर कतय मन? एतय को स्वाधीन!
अहह! ओहि दिन, तनिक लीला प्रथम दर्शन काल।
सुमिरि धु्रव बुझि पड़ल छथि आसक्त अतिशय बाल।।
रहथि याबत निकट बैसलि दृग चोराय उठाय।
हमर मुखमण्डल तकैछलि सखिहुँ बीच लजाय।।
चलय सुन्दरि जखन लागलि गृह सखीगण सँग।
गेलि परिचय दैत पथमे अपन प्रीति अभंग।।
आध मुख मुसकैत धुरि-धुरि अड़थि बारंवार।
करथि से पछुआय सखिसँ मन्द पद-सँचार।।
भृकुटि मोड़ब, प्रीति जोड़ब, मन्द से मुसुकान।
कय रहल भल सकल प्रतिपल विकल हा! मम प्राण।।
लरखराइत झिझकि बाजब झमकि चलक प्रयासँ
नयनसँ नहिं हँटय से छवि क्षणहुँ, बढ़य शुभाश।
फुलज श्यामल-स्निग्ध अलकावलि मनोहर वेश ।
भेल भीम भुजंगिनी सम डसि रहल हृदि देश।।
तनिक नव लावण्य, नव तारुण्य, नव तन कान्ति।
हरि रहल अछि हमर सम्प्रति धैर्य, मानस शान्ति।।
एक रजकण पड़य दृग तं होय यातन पीर।
पैसि मम दृग बीच रहली से सुमुखि भय धीर।।
तकर दर्द-व्यथा-विकल हम, कय सकी न बहार।
यैह थिक अनुपम सनेहो धरिक दिव्य विचार।।
अस्तु, ताहि शकुन्तला प्राणप्रिया बिनु भूप।
की कहाँ बाजथि, कहय के? मत्त जन अनुरूप।।
यैह थिक पुर्वानुरागक लक्षणो रससार।
यैह सभ वाणी वियोगी-रसिक-प्राणाधार।।
जकर ध्यानहिंसँ प्रकम्पित भय उठै अछि अंग।
से वियोगक अनुभवक की चर्च कष्ट प्रसँग।।
से वियोगक काल सुधि-बुधि ककर हा! न हेराय?
के न प्रिय-प्रेयसि-मिलन-हित छटपटाइछ हाय।
चन्द्र! झूठहिं सुनल-शीतल चन्द्रिका सुखसार।
उगिलि छह तहुँ रहल सम्प्रति अग्निहिंक अंगार।
कुसुम-शर! छल सुनल कुसुमक तोहर निर्मित तीर।
आजु वासव-वज्र बुझलहुँ चोट कर गम्भीर।।
बुझि पड़य कन्दर्प! शिव क्रोधाग्नि ज्वाल विशेष।
धधकिये औखन रहल अछि धु्र्रव तोह हृदिदेश।।
अन्यथा जे भय चुकल अछि पूर्व भस्मवशेष।
दग्धकर से हो कतहु पुनि एहन हाय! विशेष!!
यज्ञमे नहि मदन! तोहरा देल जाइछ भाग।
कामि-जनहिंक व्रत-नियम पर अछि तोहर अनुराग।।
व्यर्थ से व्रत-नियम कय हम कयल तुअ तन पुष्ट।
श्रवण धरि जे तानि रहलह तीर निज भय रुष्ट।।
कय रहल छह पंचशर! यद्यपि कठोर प्रहार।
किन्तु, हमरहिं बुझि पड़य भय रहल अछि उपकार।।
जाहि सुमुखिक विरह हमरा हा! करैछ अधीर।
प्रेरणा मिलनार्थ तकरे होय तोहरो वीर।
अस्तु, फिरतहिं रहथि करइत नृप विलाप-कलाप।
भारतण्डक चण्डकर दय रहल छल उत्ताप।।
सघन दु्रम-दल-कुंज दिशि सहसा नयन चल गेल।
शशिमुखी से जतय नृपकें दृष्टिगोचर भेज।।
अहह! तखनुक कहब की भूपतिक नयनानन्द।
मानु, भ्रमइत भ्रमर पाओल कमल-मधु-मकरन्द।।
तृषितकें जनु वारि भेटल, मृतककें जनु प्राण।
दर्शनहिंसँ भेल सम्प्रति भूपहुँक किछु त्राण।।
तखन भय प्रच्छन्न तरुवर बैसि प्रेमविभोर।
चन्द्रमुखि-मुख-चन्द्रपर दृग नृपक भेल चकोर।।
सुमन शय्यापर पड़लि छलि से कृशांगि अधीर।
कोनहुँ भाँति सहैत निर्मम पंचबाणक तीर।।
छलि यदपि विरहाग्नि सँ झुलसैत अतिशय क्षीण।
तें कि किछ सौन्दर्य बिगड़ल! आर भेल नवीन।।
क्षणहिं क्षणपर मन पडै़अछि नृपक मुख मधुबैन।
अहह! से छवि सुमिरि क्षण-क्षण भय रहलि बेचैन।।
मन्मथहुँ मन मथि रहल छल, सहित अंग समग्र।
क्षणहिं क्षण छलि छटपटाइत विकल दर्शन व्यग्र।।
उठथि रहि-रहि चैंकि खोलथि, नयन आश लगाय।
धड़फड़ा उठि खनहिं बैसथि, खसथि सेज झमाय।
छलि युगल सखि यत्न भरि सभ भाँति तत्पर भेल।
करथि कत उपचार शीतल ताप शान्तिक लेल।।
कमलनालक ढ़ील कंकण देथि खन पहिराय।
खन उशीरक लेप शीतल देथि लेपि लगाय।।
पद्म-पल्लव-रचित पंखासँ करैछ समीर।
क्षणहिं क्षणपर पुछथि सखि दुख देखि भेलि अधीर।।
‘सखि’! घटल किछ आब की नहि तनक ताप अपार?
की करु किछ अन्य शीतल बाज सखि! उपचार?’
पुछथि जें-जें ओतय सखिगण तनिक मानस हाल।
नृपति तें-तें एतय शंकित विकल होथि विशाल।।
देथि ने कहुँ अपन तापक अन्य हेतु बताय।
रहथि उत्तर लय समुत्सुक श्रवण भूप लगाय।।
किन्तु, उत्तर कहल सखिसँ सुन्दरी सविलाप।
‘वृद्धिये भय रहल अनुखन नहि घटै अछि ताप।।
व्यर्थ सखि! उपचार शीतल कर न आब अनन्त।
वैद्य औषधिसँ कतहुँ हो मानसिक ज्वर अन्त?