शकुन्तला / अध्याय 7 / भाग 2 / दामोदर लालदास
अस्तु, हो कोकी यथा निशि विकल कोकविहीन।
छलि तथैव शकुन्तला विरहाकुला अति दीन।।
दैछ सभ उपचार शीतल और दुस्सह ज्वाल।
हिम यथा कर दहन कोमल विकच-पंकज-माल।।
तखन से सुन्दरि विरहिणी सखिक सम्मति जानि।
प्रेमपत्रक सरस रचना, लेख मानस ठानि।।
भूपवर दुष्यन्त दर्शन बिनु न तापक मुक्ति।
जकर सोचल गेल पत्रहिं एक अंतिम युक्ति ।।
मोसिपात्र, न खेलनी, कागतहुँ नहि एहि ठाम।
सखि! कोना लिखु पत्र प्रेमक? युक्ति कह अभिराम।।
सुन शुकोदरसन सुकोमल दै छियौ दल आनि।
नखहिंसँ लिख खूब निखरत अक्षरो ले जानि।।
कुसुम-शय्यापर पड़लि नवयौवना से बाल।
प्रेमपत्रक करथि रचना, सहित प्रीति रसाल।।
प्राण-प्रियतम भूपवरक करति क्षण-क्षण ध्यान।
बनलि से सुवियो गिनी सँयोगिनीक समान।।
शब्द सोचथि से मनोहर सरस पत्र निमित्त।
भेल उन्नत भ्रूलता, नव भाव चंचल चित्त।।
तनिक की छविपूर्ण मुसुकति, नयन चंचल डोल।
प्रगट पतिमे निरत विलसित पुलकपूर्ण कपोल।।
पूज्यवर! प्रियतम! अहीं मम सत्य प्राणधार!
करय अनुखन पंचशर निज पंचबाण प्रहार।।
एक बाण असह्म जकरा ताहि पँच-पँच बाण।
कौन विधि सहि सकब से हम! हरण करइछ प्राण।।
अहिंक पाबि वियोग प्रियवर! धैर्य होइछ भंग।
दग्ध अंग करैछ क्षण-क्षण हा! अनंग अनंग।।
निशि-दिवापि पहाड़ लागय, प्राण लागय भार।
विरह-पारावारसँ करु प्राण-प्रियतम पार।।
कखन विरहक बितत यामिनि! हैत प्रात-रसाल!
प्रियमिलनसँ चक्रवाकिक हँ टत सँकट-जाल।।
होइछ कुमुदिनि विमुद, जैखन विरह चन्द्रक पाब।
किन्तु, के जन जान चन्द्रक की मनोगत भाव।।
अहंक हृदयक किछु न जानी, केहन प्रीतिक रंग।
मनदशा पर, हमर बुझि लिअ, ताप दैछ अनंग।।
कबह कँह धरि अपन दुख प्रिय! दिशि लगैछ अन्हार।
अहिंक दर्शन बिनु विकल अति प्राण, प्राणघार।।
अस्तु, प्रियतम हेतु विरहिणि विरचि पत्र रसाल।
निज प्रिया सखि-युगलके सुनबैछली जेहिकाल।।
चन्द्रमुखसँ मानु, स्नेहसुधाक होइछल वृष्टि।
कहल सुनि सखि-की मनोरम प्रेमभावक सृष्टि।।
एतय सुनि प्रच्छन्न उत्सुक भूपवर दुष्यन्त।
पत्ररचना की मनोरम! भरल प्रीति अनन्त।।
श्रवणपुट सन्तुष्ट तनिकर, हृदय गद्गद भेल।
तैखनहिं तरु ओटसँ भय प्रकट उत्तर देल।।
‘प्रियतमे! बस, दैछ अहँके तापमात्र अनंग।
किन्तु, भस्महि से अहर्निशि, हमर करइछ अंग।।
दिन यथा कुमुदिनिक केवल हास्य टा हरि लैछ।
किन्तु, चन्द्रक तँ प्रिये! नामहुँ रहय नहि दैछ।
दहन-दुःखक अछि मदनकें पूर्ण यद्यपि ज्ञान।
किन्तु, से न तथापि किछ करुणा करैछ प्रदान।।
दहन क्षणमें शिवक बुझि पड़, तेसर-दृष्टिक बाण।
लक्ष्य चुकि गेल, तन जरल नहि, जरल करुण नयान।।
अकचकाइलि से कृशोदरि नृपति देखल ठाढ़।
अकथ पारस्पिरिक तखनुक मोद, प्रीति प्रगाढ़।।
धड़फड़ाइलि प्रियतमहिं स्वागत प्रदानक अर्थ।
देखि नृप बजला-‘प्रिये! जनि करु अहां श्रम व्यर्थ।।
तत्क्षणहिं सखिगणक सुखप्रद प्रेम आग्रह धारि।
प्रियतमे शय्या उपर नृप देल आसन मारि।।
तखन किछ सँकुचित सनि भय गेलि से नव बाल।
कहल अवसर जानि सखिगण नृपहिं बयन रसाल।।
‘भूपवर’! अहिंपर प्रजा दुख रक्षणक अछि भार।
देखु अछि सन्तप्त सखि मम मदन-ताप अपार।।
हा! महा विकला सखी नवला हमर दर्शाय।
धर्म बुझि सदया तकर द्रुत प्राण राखल जाय।।
नव्य जलदक पवनसँ जहिना मयूरिक ताप।
जाय घटि, सर्वांग शीतल होय, कष्ट समाप।।
अछि तथैव प्रतप्त मदनक तापसँ सखि मोर।
जलद पवनहिं तुल्य अपने हरिय आतप घोर।।’
कहल नृप तत्काल प्रेयसिसँ सनेह बढ़ा।
‘नलिनि-दलहिंक ताल-वृन्तहि दी सप्रीति डोलाय।।
होय यदि करभीरु! उपशम तनक ताप विशाल।
अंक लय पद- पद्म नहुँ- नहुँ रगडि़ दी किछु काल।।
सुनि नृपक प्रेमार्द्र वाणी परम लज्जित भेलि।
कहल तन्वंगी-‘कतय ई पाप राखब ठेलि।।
हमर परिचर्या करी अपने चलाय बसात।
चरण दी अपने रगडि़! इ केहन पापक बात।।’
‘क्षत्रिये कौशिक मुनिक कन्या अहूँ रमणीय।
हमहु पुरुवंशक विभूषण राज्य-दुख दमनीय।।
हरिण-लोचनि! देखि अहुँकेर शुद्ध स्नेह-प्रवाह।
हमहुँ स्वीकृत कयल शुभ गान्धर्व-रीति-विवाह।।
आठ वैवाहिक प्रथामे एक अछि ‘गान्धर्व’।
धर्मशास्त्र-पुराण धरिमे अछि प्रशंसित सर्व।।
अस्तु, धरि प्रिय पाणि-पल्लव प्रेयसिक महिपाल।
कयल गान्धर्वे प्रथासँ प्रणय वेश रसाल।।
नयन ‘आनन मन दुहुक मुसुका उठल अभिलाष।
विरहिणी, विरही दुहुक पुरि गेल प्रणयक आश।।
चतुर सखि प्रिय-वादिनि केर मानि नव सँकेत।
दम्पतिक शुभ मिलन-मन्दिर भेल कुंज निकेत।।