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शरशय्या / तेसर सर्ग / भाग 3 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

पश्चाताप-दग्ध-मानससँ
सोचथि “ई की भेल।
प्राण तेजिके अपन कुलक सभ
हाय! कतए चलि गेल।।9।।

केवल पाँच भाइसँ पूरित
रहत कोना ई गेह?
आब हन भेटत कथमपि सम्भव
विगत विभव-स्नेह"।।10।।

एहि विधि स्थिति सूनि बूझिके
अएला वेदव्यास।
देलन्हि पाण्डवके दर्शनसँ
पूरल कत आश्वास।।11।।

“चिन्ता नहि करु थीक जगक ई
चक्रक गति अनिवार्य।
छोड़थि जन एहि मृत्युभुवनक
धीर वीर आचार्य।।12।।