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शहर में पड़ोसी / शरद कोकास
Kavita Kosh से
नाम से नहीं
स्कूटर से पहचानता है वह अपने पड़ोसी को
उसके बच्चों की बोली
स्त्रियों की वेशभूषा
घर से आती आवाज़ों से
उसकी जाति का अनुमान लगाता है
आते-जाते खुले दरवाज़ों से भीतर की झलक पाकर
उसकी हैसियत का अन्दाज़ लगाता है
उसकी रसोई से आती सब्जी की महक
उसके फेंके गए कूड़े-कचरे, खाली डिब्बों से
बालकनी में सूखते कपड़ों से
तय करता है उसके संस्कार
उलझे हुए इंसानी रिश्तों का ढेर है शहर
जहाँ वह खुद का सिरा खोज नहीं पाता
सोने से पहले सोचता है
कल ज़रूर मिलेगा पड़ोसी से
दिन उसे रोज़ी के जुए में जोत देता है
छुट्टी के दिन वह तानकर सोता है
किसी अजनबी द्वारा
पड़ोसी का पता पूछे जाने पर शर्मिन्दा होता है।
-1997