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शहर / शरद कोकास

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शहर में खड़ी उदास इमारतें
जिनकी आँखों से टपकते हैं ईंट-पत्थर
सड़कों के गड्ढे
पाँवों के जाने पहचाने हैं

कूड़े के ढेरों पर मौजूद है
कचरा बीनने वालों की नई पीढ़ी
दुखी से दुखी आदमी
हालचाल पूछने पर
सब ठीक कहता है

पहचान का भाव ग़ायब है
जवान होते बच्चों की आँखों से
दोस्तों के बीच
बस बीमारियों की बातें बची हैं
वीरान है गपबाजी के तमाम अड्डे

जिनका कहना था
कि शहर उन्होंने बसाया था
वे ख़ुदा हो गए हैं
हद तो यह है कि
शहर के लोग
मुझे ज़िम्मेदार नागरिक मानने लगे हैं।

-1996