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शाश्वत सुनो / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
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शाश्वत! सुनो
नये मौसम में पेड़ नहीं होंगे
तुम होगे
ये 'इंटरनेट' के जंगल होंगे
नदी-ताल-सागर होंगे
वे निर्जल होंगे
चुस्त-दुरुस्त
तुम्हारे सपने, सुनो, वहीं होंगे
आसमान तक
अमरबेल ही फैली होगी
सबके हाथों में
सोने की थैली होगी
चमगादड़-उल्लू ही
केवल कहीं-कहीं होंगे
पोथी में तितली-भौंरे का
ज़िक्र मिलेगा
पूजाघर में
'कंप्यूटर' का चित्र मिलेगा
घर है यह
दादी-बाबा के चित्र यहीं होंगे