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शून्य / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा
Kavita Kosh से
रात का सूनापन और सन्नाटा चीरते हुए
सड़क पर से गुज़रते किसी वाहन की आवाज़
जब दूर होती चली जाती है
दिशाओं की सुरंगों में डूबती चली जाती है
तब पीछे छूट गया शून्य और सन्नाटा निगलने लगता है
मुझे अपनी गिरफ्त में लेने लगता है
मुझे खाने लगता है
मुझे काटने लगता है
रेतने लगता है
मेरी नसें सिकुडऩे लगती हैं
तन से लहू टपकने लगता है
शरीर का सारा जल सूखने लगता है
तब मैं ज़िंदा लाश में बदल जाती हूँ
अँधेरे में खुद अन्धेरा होकर रह जाती हूँ
तुम्हारे बिना