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शौक़ ने इशरत का सामाँ कर दिया / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

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शौक़ ने इशरत का सामाँ कर दिया
दिल को महव-ए-रू-ए-जानाँ कर दिया

तू ने ऐ जमइयत-ए-दिल की हवस
और भी मुझ को परेशाँ कर दिया

वाह रे ज़ख़्म-ए-मोहब्बत की ख़लिश
जिस को दिल ने राहत-ए-जाँ कर दिया

ख़ुद-नुमाइ्र ख़ुद-फ़रोशी हो गई
आप ने अपने को अरज़ाँ कर दिया

उन के दामन तक न पहुँचा दस्त-ए-शौक़
उस को मररूफ़-ए-गिरेबाँ कर दिया

बज़्म में जब ग़ैर पर डाली नज़र
आप ने मुझ पर भी एहसाँ कर दिया

कुछ बढ़ा कर मैं ने बहर-ए-शरह-ए-ग़म
चाक को उनवान-ए-दामाँ कर दिया

झुक गई आख़िर हया से उन की आँख
शौक़ ने मुझ को पशेमाँ कर दिया

पा-ए-बुत पर मैं ने दो सजदे किए
कुफ्र को भी जुज़्व-ए-ईमाँ कर दिया

उसे ख़याल-ए-लैला-ए-मजनूँ-नवाज़
तू ने सहरा को गुलिस्ताँ कर दिया

हो के ज़ाइल कुव्वत-ए-एहसास ने
मुश्किलों को मेरी आसाँ कर दिया

दिल नहीं जाता था सू-ए-राह-ए-दैर
कैसे काफ़िर को मुसलमाँ कर दिया

तू ने ‘वहशत’ क्यूँ ख़िलाफ-ए-रस्म-ए-इश्क़
दर्द को रूसवा-ए-दरमाँ कर दिया