सखी! यह कैसी भूल भई।
लिखन लगी पाती पिय कौं लै दाडिम-कलम नई॥
भूली निज सरूप हौं तुरतहिं, बन घनस्याम गई।
बिरह-बिकल बोली पुकार-’हा राधे! कितै गई ?’
पाती लिखी-’प्रिये हृदयेस्वरि! सुमधुर सु-रसमयी।
प्रानाधिके! बेगि आऔ तुम नेह-कलह-बिजयी’॥
ठाढ़े हुते आय मनमोहन, मो तन दृष्टि दई।
हँसे ठठाय, चेतना जागी, हौं सरमाय गई॥