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सतरमोॅ अध्याय / गीता / कणीक

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सतरमोॅ अध्याय

(श्रद्धा-त्रय विभाग योग के नामोॅ पर है अध्याय जानलोॅ जाय छै। श्रद्धा सें भगवानोॅ के नामोॅ आरो कीर्ति के स्मरण आरो उच्चारण करी केॅ शुभ कार्योॅ में लागै के सन्देशा यै अध्याय में देलोॅ गेलोॅ छै। श्रद्धा उपार्जन लेली शास्त्रीय विधि अपनावै के आवश्यकता छै। आहार, यज्ञ, तप आरो दान के त्रिविध स्वरूप आरो फेनू शुद्धता के साथसथ गुरू, देव आरो द्विज केॅ सम्मान करतें हुए अवगुणोॅ केॅ तिलांजली दै के बात यैं अध्याय में छै। ब्रह्मचर्य धर्म के निर्वाह करी केॅ श्रद्धा से वैदिक मंत्रोॅ के ध्वनि के साथ परमात्म पूजन एवं यज्ञ करै के महत्वोॅ के यै अध्याय में विवेचना करलोॅ गेलोॅ छै।)

अर्जुन बोललै-वै नर के की?
हे कृष्ण नै जानै शास्त्र विधि?
रज, तम सत्वोॅ केॅ जानै नै
श्रद्धा पूजन पहचानै नै?॥1॥

भगवानें कहलकै त्रिविध श्रद्धा, तम रज सत्वोॅ में रहै सदा
देहै स्वभाव से हौ सात्वकी, देहै से राजसी औॅ तामसी॥2॥

श्रद्धानुरूप स्थिति देखी, हे भारत! प्राणीं त्रिगुण लेखी
कायां स्वभावें तेॅ गुण चाखै, नर वही गुणोॅ केॅ धरि राखै॥3॥

सात्वकी देव के पूजन में, राजसीं यक्ष-राक्षस मन में
तामसीं प्रेत-भूतोॅ के संग, अन्योॅ केॅ पूजै अपनोॅ ढंग॥4॥

जे मनुज अशास्त्रीय घोर कर्म, करि देखलावै निज अहं दम्भ
फिन काम काज बलजोरि करै, विघ्नोॅ सें कखनू नहीं डरै॥5॥

आपन्है देहोॅ केॅ नष्ट करै, करि घाव आत्मां कष्ट भरै
हमरा भी ईश्वर नै मानै, कर्मे ओकरा असुरे जानै॥6॥

आहार भी गुण के अलग-अलग, त्रिगुणोॅ साधक के तीन विलग
तप, दान, यज्ञ तीन्हूं केॅ प्रिय, पर ढंग सभै के अलगे हीं॥7॥

आयु, सुख, प्रीति, सत्व बल जे, आरोग्य बढ़ाबै बाला से
रस-स्निग्ध-स्थिर जे हृद् भावै, हौ भोजन सात्वकी ही पावै॥8॥

कटु, अम्ल, लवण अतिशय ही उष्ण, सुखलोॅ भुनलोॅ जरलोॅ ठो तीक्ष्ण
दुःख रोग-शोक पैदा जें करै, आहार हौ राजस नित्य करै॥9॥

अतिबासी स्वाद में हीन ग्रास, पर्युपित औॅ दुर्गन्ध वास
जुठ्ठन, छुत्तल, उच्छिष्ट छै जे, आहार तामसी केॅ प्रिय छै॥10॥

फल प्राप्ति बिनु जे यज्ञ करै, शास्त्रीय विधि मंतर उच्चरै
ईनाम प्राप्ति के लोभ के विन, बस वेॅ हेॅ छेकै सात्वकी के गुण॥11॥

भौतिक फल के लालच में पड़ी, जे नर घमंड में यज्ञ करी
हे पार्थ! अर्थ हित ही जानोॅ, वै यज्ञ केॅ राजस पहचानोॅ॥12॥

जे मंत्रहीन जें विधिहीन, जे नर प्रसाद बाँटै विहीन
श्रद्धा से हीन जें यज्ञ करै, ओकरा सभ्भैं तामस उच्चरै॥13॥

गुरू, देव, द्विजोॅ केॅ जें पूजै, सादा जिनगी लै पावन जे
रही ब्रह्मचर्य हिंसा से मुक्त, दैहिक तप के कामना युक्त॥14॥

उद्वेग रहित सच बात कहै, जेकरा सें प्रिय आरो हित ही बनै
स्वाध्यायाभ्यास सें वेद पढ़ै, तप के करला सें ज्ञान चढ़ै॥15॥

मन के तुष्टि, सौम्यत्व संग, जे मौन रहै, स्वनियंत्रण
प्रकृति शुद्धि हरदम राखै, जे घोर तपस्वी सन भाखै॥16॥

श्रद्धा सें भरलोॅ ही तप जेॅ है त्रिविध क्रिया ज्ञानी नर के
फल इच्छा में जे नै प्रवृत, हौ सात्वकी तप के छै प्रकृति॥17॥

लै दम्भ तपोॅ संग जें पूजै, सत्कार मान करवाय में जे
जें हथकण्डा अपनाबै छै, हौ राजसी तप ही कहावै छै॥18॥

जे सनक-वाय में कर्म करै, खुद निज देहोॅ केॅ कष्ट करै
अन्यों के भी घाते ही करै, हौ तप केवल तामस के हुवै॥19॥

जें दान करै मन शुद्ध करी, कभी वापस नै लै दान करी
दै देश काल पात्रोॅ के लखी, हौ दानी कहावै सात्वकी ही॥20॥

मन के इच्छा केॅ रोपी थाह, जें दान करै बदले की चाह
जेकरोॅ चित्त छै निश्कामनहीं, हौ दान राजसी नाम सही॥21॥

नैं देश, काल पात्रोॅ देखी, जे दान करै निज तुष्टि लखी
सम्मान रहित जे दान करै, हौ तामस दान के नाम पड़ै॥22॥

ऊँ-तत्-सत् मंत्र के पाठ करी, जें वेदब्राह्मणोॅ केॅ ही धरी
हर यज्ञ के विहित विधानी जे, पूजै पर-ब्रह्म केॅ ज्ञानीं वें॥23॥

यै लेली सभे ठो यज्ञ-करता, दानोॅ तप्पोॅ के शुभ भर्त्ता
बस ओउम शब्द ही बोलै छै, जें परम धाम पट खोलै छै॥24॥

हे पार्थ! है सत् ही अन्तिम सच, हर यज्ञ शुरू में एकरोॅ सच
है भक्त आरो भगवानोॅ के, है व्यवहृद जन कल्याणोॅ के॥25॥

तप दान यज्ञ में है स्थित, सभ्भै उच्चरै बस सत् ही सत्
यै शब्दोॅ केॅ अभ्यास कर्हौ, करि यज्ञ परम में वास कर्हौ॥26॥

हे पार्थ! अश्रद्धा सें करलोॅ
है यज्ञ-दान-तप सब धरलोॅ
यै असत् में कुछ की छै भी असर?
नै जीवन परे, नैं जीवन भर?॥28॥