भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सन्नाटा / शरद कोकास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने अर्थ से भिन्न ध्वनित होते हैं कुछ शब्द
इन दिनों ऐसा चलन भी है हमारे यहाँ
जैसे सहिष्णु का अर्थ हिन्दु से लिया जाता है
और कट्टर का अर्थ मुसलमान से
अर्थ खोते बेहिसाब शब्दों के ढेर में
गुम हैं इस तरह कहीं सन्नाटा
बहुत मुश्किल है उसका सही रूप ढूँढ़ पाना

शायद जंगल में मिले वह कहीं
चिड़ियों की चहचहाहट और पत्तों की खड़खड़ाहट के बीच
शातिर बनकर दुबका हुआ
या रात में चुपचाप अपनी गुफा के बाहर निकलता हुआ
शहर में तो सिर्फ़ सन्नाटे के प्रतिरूप हैं
यहाँ राजनीतिक गलियारों का सन्नाटा है या
दंगे के बाद मौत का सन्नाटा है या
आधुनिकता के शोर में साहित्य का सन्नाटा है

दरअसल सन्नाटा अपने मूल अर्थ में वही सन्नाटा है
जिसमें किसी तरह की आवाज़ नहीं है
जो देह की शिराओं में प्रवेश कर रक्त में समाता है
सुनाई नहीं देती अपनी साँसों की आवाज़
दिल की धड़कन तक बेआवाज़ होती है
उसके मन में प्रवेश करते ही
ख़ामोश होती है ज़बान
विरोध के स्वरों में सिर्फ़ होंठ हिलते हैं

काल सा विकराल मुँह फाड़े खड़ा यह सन्नाटा
आदमी का वजूद निगल जाने को तत्पर
पहले ही उदरस्थ कर चुका है चिंतन
विचार का एक बड़ा हिस्सा गले से नीचे उतार चुका है
उसकी गिरफ़्त में है अपनी धुरी पर बेआवाज़ घूमती पृथ्वी
इंसान के स्वार्थों पर कसी है उसकी लगाम
महत्वाकांक्षाएँ उसके जाल में फँसी हैं

कहीं न कहीं इस सन्नाटे के प्रतिरूप बने हम
न अपने आपको पहचान पा रहे हैं न उसे
यह स्थिति तोड़ पाना है कठिन आत्मघात की तरह
फिर भी कुछ नई आवाजे़ इसे तोड़ने के लिये हैं तत्पर
जिनमें व्यक्तिगत इच्छाओं का शोर है अधिक

शब्दों के शोर में लुक-छिप कर हमारी ओर आता सन्नाटा
इससे पहले कि हमारा वजूद निगल जाए
देह की सितार पर छेड़ना होगा प्राणों का राग
उठती गिरती साँसों की कश्ती पर सवार होकर
चुप्पी की कै़द से बच निकलना होगा
सहनशीलता और सन्नाटे के बीच अदृश्य में उपस्थित
सूक्ष्म सी विभाजन रेखा पर पहुँचकर
चीखना होगा पूरी ताकत के साथ।

-2003