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सब कुछ भूला / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

सब कूछ भूला, किन्तु न भूले वे लोचन अभिराम!
तुम्हारे लोचन ललिल-ललाम!

चितवन में सपनों की छाया,
मृग-मरीचिकाओं की माया,
इन्द्रधनुष-धारे पलकों में छिपे रहें घनश्याम!
तुम्हारे लोचन ललिल-ललाम!

बात न अधरों तक आये,
दृष्टि सहज में ही कह जाये,
वे दृग, संकेतों से ले-लें कैसे-कैसे काम!
तुम्हारे लोचन ललिल-ललाम!

कब की उठी मधुर मधुशाला,
पर न अभी तक उतरी हाला,
कभी-कभी मैं हस्ताक्षर में, लिख जाऊँ खैयाम!
तुम्हारे लोचन ललिल-ललाम!