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सब जाने-पहचाने हैं / अशोक अंजुम
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सब जाने-पहचाने हैं
खुद से हम अनजाने हैं
दिल टूटा तब ये जाना
कितने आप सयाने हैं
हर ठोकर बतलाएगी
हम कितने दीवाने हैं
मजनूं बोला मुसकाकर
मुझको पत्थर खाने हैं
चिड़ियाँ हैं बाज़ार ों में
जाल के नीचे दाने हैं
‘मैं’ से बोला ‘हम’ आखिर
रूठे सुजन मनाने हैं
पहले बहू के हिस्से थे
अब सासू को ताने हैं
घर-घर झूमे शाम ढले
गली-गली मयख़ाने हैं
कौन शहादत दे ‘अंजुम’
सब पर ख़ूब बहाने हैं