समझ रही मैं लाभ / हनुमानप्रसाद पोद्दार
समझ रही मैं लाभ चिर-इन्द्रिय-निग्रहका सहित बिबेक।
रोके भी रखती हूँ इनको, सदा-सर्वदा रखकर टेक॥
मर्त्य-भोग सब असत्, तुच्छ अति सभी नगण्य स्वर्गके भोग।
अपुनर्भवमें भी आकर्षित हो न चिा करता संयोग॥
पर प्रिय-गुणगण, मुरली-रव कर देते सभी अङङ्ग चचल।
श्रोत्र मानते नहीं, चिा हो जाता विकल परम विह्वल॥
मन करता-यदि रोम-रोम हो जाता केवल श्रोत्र-स्वरूप।
पीता वह अविरत प्रिय-गुण-गण मुरली-रव-रस मधुर अनूप॥
कभी देख पाती यदि प्रियको मनमें उठती एक तरंग।
हो जाता यदि तुरत नयनमय मेरे तनका अँग-प्रत्यङङ्ग॥
फिर तो डूबी रहती मैं उस रूप अनन्त सिन्धुमें नित्य।
उठ जाती मायाकी सारी मोहमयी यह हाट अनित्य॥
प्रियकी प्रिय इच्छासे मैं करती यदि उनसे वार्तालाप।
मनमें आता बने तुरत, सारा तन ’मुखमय’ अपने-आप॥
करती रहूँ बात प्रियतमसे मधुर-मधुर मैं अनियत काल।
दिव्य प्रेमरस रहूँ पिलाती-पीती, होती रहूँ निहाल॥
सखिसे यों कह, ध्यानमग्र हो, राधा मौन हुई तत्काल।
प्रकट हो गये तभी अमित सौन्दर्य-सुधा-सागर नँद-लाल॥