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साइके / मरीना स्विताएवा
Kavita Kosh से
1.
मैं घर लौट आई हूँ
मै छद्मवेशी नहीं हूँ ।
रोटी नहीं चाहिए मुझे
मैं नौकरानी नहीं हूँ ।
मैं हूँ तुम्हारी वासना का आवेग
आराम हूँ तुम्हारा रविवार का ।
दिन हूँ तुम्हारा सातवाँ
और हूँ तुम्हारा सातवाँ आकाश ।
एक पैसा क्या मिला भीख में
चक्की के बाँध दिए पाट मेरे गले में ।
ओ प्रिय, पहचान नहीं पा रहे हो क्या
मैं अबाबील हूँ - तुम्हारी आत्मा ।
2.
कभी जो रहा कोमल शरीर
आज ढका है चीथड़ों से,
टुकड़े-टुकड़े हो गया है सब कुछ
साबुत बचे हैं सिर्फ़ दो पंख ।
बचाओ, तरस खाओ मुझ पर --
पहनाओ मुझे अपनी गरिमा
और ले जाओ मेरे फटे चीथड़े
अपने परिधानो के पवित्र भण्डार में ।