साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / एकादश सर्ग / पृष्ठ ३
"अनुज, सुनाते रहो सदा तुम मुझको ऐसे ही संवाद,
सुनों, मिला है हमें और भी हिमगिरि का कुछ नया प्रसाद।
मानसरोवर से आये थे सन्ध्या समय एक योगी,
मृत्युंजय की ही यह निश्चय मुझ पर कृपा हुई होगी।
वे दे गये मुझे वह ओषधि संजीवनी नाम जिसका,
क्षत-विक्षत जन को भी जीवन देना सहज काम जिसका।
किया उसे संस्थापित मैंने चरण-पादुकाओं के पास,
फैल रही यह सुरभि उसी की, करती है वह विभा-विकास।"
"आर्य, सभी शुभ लक्षण हैं, पर मन में खटक रहा है कुछ,
निकल निकल कर भी काँटे-सा उसमें अटक रहा है कुछ।
लाकर दूर दूर से अपने प्रभु के लिए भेट सस्नेह,
जल-थल से पुर के व्यवसायी लौट रहे हैं निज निज गेह।
आज एक ऐसे ही जन ने मुझको यह संवाद दिया,
सब के लिए अगम दक्षिण का पथ प्रभु ने है सुगम किया।
शान्त, सदय मुनियों को उद्धत राक्षस वहाँ सताते थे,
धर्म-कर्म के घातक होकर उनको खा तक जाते थे।
आर्ये, सिहर उठीं तुम सुन कर हुआ किन्तु अब उनका त्राण,
रहते हैं लेकर ही अथवा देकर ही प्राणों को प्राण!
प्रभु के शरण हुए कुछ ऋषि-मुनि कह कर कष्ट-कथा सारी,
सफल समझ अपना वन आना द्रवित हुए वे भयहारी।
अत्रि और अनसूया ने तब उनको आर्शीवाद दिया,
दिव्य वसन-भूषण आर्या को दे बेटी-सा विदा किया।
दण्डक वन में जाकर प्रभु ने लिया धर्म-रक्षा का भार,
दिया अश्रु-जल हत मुनियों को उनका अस्थि-समूह निहार।
बाधक हुआ विराध मार्ग में, झपटा आर्या पर पाषण्ड;
जीता हुआ गाड़ देना ही समुचित था उस खल का दण्ड।"
"हाय अभागे!""सचमुच भाभी, अच्छा हो अरि का भी अन्त,
किन्तु स्वयं माँगा था उसने मुक्ति-हेतु यह दण्ड दुरन्त।
मिल शरभंग, सुतीक्ष्ण आदि से आर्य अगस्त्याश्रम आये,
कौशिक-सम दिव्यास्त्र उन्होंने उन मुनिवर से भी पाये।
गोदावरी-तीर पर प्रभु ने दण्डक वन में वास किया,
अपनी उच्च आर्य-संस्कृति ने वहाँ अबाध विकास किया।
राक्षसता उनको विलोक कर थी लज्जा से लोहित-सी,
शूर्पणखा रावण की भगिनी पहुँची वहाँ विमोहित-सी।"
हँसी माण्डवी--"प्रथम ताड़का, फिर यह शूर्पणखा नारी,
किसी बिड़ालाक्षी की भी अब आने वाली है बारी!"
"उनमें भी सुलोचनाएँ हैं और प्रिये, हम में भी अन्ध।"
"नाथ, क्यों नहीं,-तभी न अब यह जुड़ता है उनसे सम्बन्ध!--
हाँ देवर, फिर?" "भाभी, आगे हुआ सभी रस-भाव विवर्ण,
आर्या को खाने आई वह--गई कटा कर नासा-कर्ण।
इसके पीछे उस कुटीर पर घिरी युद्ध की घोर घटा,
निशाचरों का गर्जन-तर्जन, शस्त्रों की वह तड़िच्छटा।
अभय आर्य ने इन्द्रचाप-सा चाप चढ़ा कर छोड़े बाण,
रहा राक्षसों के शोणित की वर्षा का फिर क्या परिमाण?
निज संस्कृति-समान आर्या की अग्रज रक्षा करते थे,
और प्रहरणों से प्रभुवर के रण में रिपु-गण मरते थे।
बहु संख्यक भी वैरि जनों में उन गतियों से खेले वे,
दीख पड़े सबको असंख्य-से होकर आप अकेले वे!
दूषण को सह सकते कैसे स्वयं सगुण धन्वाधारी,
खर था खर, पर उनके शर थे प्रखर पराक्रम-विस्तारी।
व्रण-भूषण पाकर विजयश्री उन विनीत में व्यक्त हुई,
निकल गये सारे कंटक-से व्यथा आप ही त्यक्त हुई।
जय जयकार किया मुनियों ने, दस्युराज यों ध्वस्त हुआ,
आर्य-सभ्यता हुई प्रतिष्टित, आर्य-धर्म आश्वस्त हुआ।
होते हैं निर्विघ्न यज्ञ अब जप-समाधि-तप-पूजा-पाठ,
यश गाती हैं मुनि-कन्याएँ, कर व्रत-पर्वोत्सव के ठाठ।"
"धन्य" भरत बोले गद्गद हो--"दूर विकृति वैगुण्य हुआ,
उस तपस्विनी मेरी माँ का आज पाप भी पुण्य हुआ।
तदपि राक्षसों के विरोध की हुई मुझे नूतन शंका,
विश्रुत बली-छली है रावण, सोने की जिसकी लंका।"
"नाथ, बली हो कोई कितना, यदि उसके भीतर है पाप,
तो गजभुक्तकपित्थ-तुल्य वह निष्फल होगा अपने आप।"
"प्रिये, ठीक है, किन्तु हमें भी करना है कर्त्तव्य-विचार,
जलते जलते भी अधमेन्धन छिटकाता है निज अंगार।
हत वैरी का भी क्या हमको करना पड़ता नहीं प्रबन्ध,
जिसमें सड़ कर उसका शव भी फैलावे न कहीं दुर्गन्ध।
पुण्य लाभ करने से भी है पाप काटना कठिन कठोर,
कुसुम-चयन-सा सहज नहीं है काँटों से बचना उस ओर।
पुर्व पुण्य के क्षय होने तक पापी भी तो दुर्जय है,
सरला-अबला आर्या ही के लिए आज मुझको भय है।
मायावी राक्षस--वह देखो!" चौंक वीरवर ने थोड़ा,
दीख न पड़ा उठा कर धन्वा कब शर जोड़ा, कब छोड़ा।
"हा लक्ष्मण! हा सीते!" दारुण आर्त्तनाद गूँजा ऊपर,
और एक तारक-सा तत्क्षण टूट गिरा सम्मुख भू पर।
चौंक उठे सब "हरे! हरे!" कह-"हा! मैंने किसको मारा?"
आहत जन के शोणित पर ही गिरी भरत-रोदन-धारा।
दौड़ पड़ीं बहु दास-दासियाँ, मूर्च्छित-सा था वह जन मौन,
भरत कह रहे थे सहला कर--"बोलो भाई, तुम हो कौन?"
कहा माण्डवी ने तब बढ़ कर-"अब आतुरता ठीक नहीं,
संजीवनी महोषधि की हो नाथ, परीक्षा क्यों न यहीं?"
"साधु-साधु" कह स्वयं भरत ही जाकर उसको ले आये,
चमत्कार था नये प्राण-से उस आहत जन ने पाये।
आँखें खोल देखती थी वह विकट मूर्ति हट्टी-कट्टी,
अपना अंचल फाड़ माण्डवी उसे बाँधती थी पट्टी!
"अहा! कहाँ मैं, क्या सचमुच ही तुम मेरी सीता माता?
ये प्रभु हैं, ये मुझे गोद में लेटाये लक्ष्मण भ्राता?"
"तात! भरत, शत्रुघ्न, माण्डवी हम सब उनके अनुचारी;
तुम हो कौन, कहाँ, कैसे हैं वे खर-दूषण-संहारी?"
चौंक वीर उठ खड़ा हो गया, पूछा उसने--"कितनी रात?"
"अर्द्धप्राय" "कुशल है तब भी, अब भी है वह दूर प्रभात।
धन्य भाग्य, इस किंकर ने भी उनके शुभ दर्शन पाये,
जिनकी चर्चा कर सदैव ही प्रभु के भी आँसू आये।
मेरे लिए न आतुर हो तुम, कहाँ पार्श्व का अब वह घाव?
अम्बा के इस अंचल-पट में पुलकित मेरा चिर-शिशु-भाव!